चारण जाति में श्रीआवड़ माता से पूर्व अवतरित लोक देवियाँ :-

चारण जाति में श्रीआवड़ माता से पूर्व अवतरित लोक देवियाँ :-

1 वाक् देवी :-

             ऋग्वेदोक्त देवी सुक्त के अनुसार चारण परम्परा यह मानती हैं कि ऋग्वेद काल में अम्भृण नाम के चारण ऋषि थे। उनके वाक् देवी नाम की पुत्री थी जो जगद्म्बा की परम उपासक थी। उसका जगदम्बा के साथ तदात्म्य स्थापित था । चारण देवियों की मातृ पूजा की परम्परा में इनका प्रथम स्थान हैं। ये चारण कुल में जन्म लेनी वाली प्रथम देवी मानी जाती हैं। आई वाक् देवी ब्रह्मज्ञानी थी। इनका जगदम्बा से सीधा साक्षात्कार हुआ था। इनका जीवन जगद्‌बामय बना हुआ था। ब्रह्म स्वरूपा जगद्म्बा का भाव उनके तन-मन-बुद्धि में व रग-रग में समाहित था। आई वाक् देवी का परम शक्ति जगद्‌बा के साथ ऐक्यात्मक का भाव, स्वयं सृष्टि की अधिष्ठात्री होने का भाव, एक विभूतिमय, विश्वरूपमय, अतिभव्य मंगलगान, उनके स्वमुख से कहे गये देवी सुक्त में इस प्रकार से कहा गया हैं।

ॐ अहमित्यष्टर्चस्थ वाक् आम्भृणी ऋषि :।

सच्चित्सुखात्मक सर्वगता परमात्मा देवता ।

द्वितीयाया ऋचो जगती । शिष्टानाम् त्रिष्टुप छंद : ।

देवी माहात्म्य पाठे विनियोग :।।

      अर्थात् ऊँ यह आठ ऋचाओं (ऋग्वेद मंत्रों) की ऋषि (चारण), महर्षि अम्भृण की पुत्री मैं वाक् देवी हूँ। इस सुक्त के देवता सच्चिदानंद स्वरूप, सर्वव्यापक ऐसे परमात्म शक्ति हैं। इस सुक्त की दूसरी ऋचा जगती छंद में हैं एवं अन्य सात ऋचाएँ त्रिष्टुप छंद में हैं।

       वाक् देवी ने परम शक्ति के साथ अभेदत्व साधा एवं उसे अपने जीवन में उतारा। उनके इस दिव्य अभेदत्व का परम शक्ति के साथ उनके एैक्य स्वरूप उनके रचित ऋग्वेदीय देवी सुक्त में प्रतिबिम्बित हुआ हैं। ऋग्वेद के दसवे मण्ड़ल के दसवे अध्याय के 125 वां देवी सुक्त आत्म साक्षात्कार की सुगंध से महक रहा हैं। परमात्म शक्ति के साथ अभेद भाव की अस्मिता वाली वाणी से प्रकाशमान हैं। दिशा एवं काल की सीमाओं को लांघकर समग्र सर्जन को स्वयं में समाहित किया हुआ हैं। वह सुक्त आई वाक् देवी के सर्वाधीश्वरीपन ‘अहं ब्रह्मास्मि’ का गान कर रही हैं। वह सुक्त इस ग्रंथ के चौथे प्रकरण में उल्लेखित हैं। जगदम्बा श्री वाक् देवी की यह अमर वाणी महत्वपूर्ण हैं।

2 गिरा देवी :-

        छंद शास्त्र के आदि प्रणेता वेद कालीन चारण पिंगलाचार्य थे। इनकी धर्म पत्नी गिरा देवी महान् विदुषी थी जो वेदों की व धर्म शास्त्रों की जानकार थी। गिरा देवी स्वयं कवियत्री थे तथा छंद शास्त्र की रचना में स्वयं के पति पिंगलाचार्य की उन्होंने मदद की। चारण जाति को विद्यावासंगी बनाने में वे जीवन भर खूब प्रत्यनशील रही थी।

3 हिंगलाज देवी :-

         शक्तिपीठ हिंगलाज (पौराणिक हिंगलाज) के अलावा लोक देवी हिंगलाज के अवतरण की भी मान्यता हैं। गौरविया शाखा के चारण हरिदास के घर नगर थट्टा सिंध पाकिस्तान में लोक देवी हिंगलाज का जन्म हुआ ऐसी मान्यता चारण जाति में हैं। जनश्रुति के अनुसार चारण देवीं हिंगलाज ने अविवाहित रहकर आजन्म कौमार्य ब्रह्मचर्य का पालन किया। इनका पूजन माँ सरस्वती के स्वरूप ब्रह्माणी रूप में पूजा जाता हैं। देवी हिंगलाज धर्मशास्त्रों में पारंगत विदुषी थे। इन्हें आगम निगम की सुझ थी। ये महान् तपस्विनी व कर्मयोगी थे।

        जब चारण हिमालय के दुर्गम पहाड़ी स्थलों को छोड़कर भारतवर्ष के मैदानों की तरफ आने लगे तब उनका एक जत्था (समूह) (तुम्बेल तथा उनके सगे सम्बन्धी व अन्य शाखाओं के चारणों का समूह) भी उत्तर पश्चिम प्रदेश में हिमालय की ओर से आया। उस समूह का अभिवादन देवी हिंगलाज ने किया। देवी हिंगलाज ने पश्चिम की सीमा की अशिक्षित जातियों मे धर्म भावना का प्रचार-प्रसार किया।

        चारण कुल में अवतार लेने वाली ये हिंगलाज माता यूनानी शासक सिंकदर की समकालीन थी। यूनानी आक्रमणकारी सिंकदर ने 326 ई.पू. में भारत पर चढ़ाई की। उसने बैक्टीरिया से होकर काबूल पर विजय प्राप्त किया और वहां सिंकदरिया नामक नगर बसाया। यह नगर गंधार के नाम से भी जाना जाता हैं। काबूल से हिन्दुकुश पर्वत को पार कर तक्षशिला पहुंचा। जब सिंकदर ने तक्षशिला पर चढ़ाई करने का विचार किया तो उसे अश्वों की आवश्यकता हुई। देवी हिंगलाज माता के पिताजी हरिदासजी अश्वों के बड़े सौदागर थे। इनके पास से सिंकदर ने आठ सौ घोड़े लेने का निर्णय किया। इस पर देवी हिंगलाज माता ने सिंकदर द्वारा इतनी बड़ी संख्या में घोड़े खरीदने का कारण जानने का प्रयास किया तो उन्हें जानकारी मिली कि इन घोड़ो का उपयोग हमारे देश पर चढ़ाई करने के लिए सिंकदर करना चाहता हैं। ये जानकारी मिलने पर सिंकदर को घोड़े देने से इंकार कर दिया तथा वे स्वयं पांच सौ वीर तुम्बेल चारणों के साथ अपने घोड़ों की विशाल सेना लेकर सिंकदर को आगे बढ़ने से रोक दिया। हिंगलाज देवी की तरह श्रीबिरवड़ देवी ने 500 घोड़े देकर अपने पुत्र बारू सौदा को राणा हम्मीर के साथ भेजकर चितौड़गढ़ पर विजय प्राप्त करने में अहम मदद की तथा राणा प्रताप की हल्दीघाटी के युद्ध में मदद बारूजी के वंशज कैसाजी व जैसाजी सौदा ने की थी तथा इतिहास प्रसिद्ध चेटक घोड़ा कैसाजी सौदा ने लाकर राणा प्रताप को दिया था। इसी तरह नरूजी सौदा ने औरगजेब की सेना से उदयपुर के जगदीश मंदिर की रक्षा करते हुए अपनी शहादत दी। इस प्रकार से सिंकदर, अलाउद्दीन, अकबर व औरगजेब का मुकाबला क्षत्रियों ने चारणों द्वारा दिये अश्वों व सैन्य सहायता की बदौलत किया था।

      देवी हिंगलाज ने अपना स्थाई निवास स्थान बलुचिस्तान प्रान्त के लासबेला के पास स्थित कोहला पर्वत को बनाया और अपना पूरा जीवन वही व्यतीत किया। कोहला पर्वत के प्रदेश की अधिष्ठात्री होने के कारण इन्हें कोहलाराणी के नाम से भी सम्बोधित किया जाता हैं।

      भक्त कवि ईसरदासजी ने हरिरस के मंगलाचरण में ब्रह्माणी एवं कोहलाराणी कहकर स्तुति प्रार्थना करते हुए कहा हैं कि रिधि सिधि देयण कोहलाराणी, वाला बीज मंत्र ब्रहमाणी । वयण उकति दे अविरल वाणी, पुणा क्रीत जिम सांरगपाणी ।।

        अर्थात् कोहला पर्वत क्षेत्र की अधिष्ठात्री हे हिंगलाज देवी! आप रिधि (ऐश्वर्य सम्पति) एवं सिद्धि (देवी शक्ति) की दाता हो एवं ओमकार बीज मंत्र जिसका शुद्ध स्वरूप हैं। आप ब्रह्माणी अर्थात् महासरस्वती हो आप मुझे अनुठी उक्तिवाली शुभ दिव्य वाणी प्रदान करो जिससे मैं सारंगपाणी (सार्ग धनुष को हाथ में धारण करने वाली) ऐसी श्री हरि की कीर्ति का गान कर सकूं।

    आज भी चारण समाज एवं उदासीन सम्प्रदाय के संयासियों में नगर थट्टा के हिंगलाज की यात्रा मूल हिंगलाज के बराबर मानी जाती हैं। चारण देवी हिंगलाज एवं पौराणिक हिंगलाज आपस में इतनी घुल-मिल गयी हैं कि इन्हें आपस में पृथक करना सम्भव नहीं हैं। अविभक्त भारत के बलुचिस्तान, सिंध, गुजरात, राजस्थान, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, महाराष्ट्र एवं दिल्ली प्रान्तों में हिंगलाज देवी के अनेक मंदिर एवं स्थान हैं।

4 वाकल देवी :-

वाकल देवी भगवती श्रीआवड़ादि देवियों की पूँआ थे। इनका विस्तृत अध्ययन हम तृतीय अध्याय में करेंगे।

उक्त चारों देवियों का अवतरण भगवती श्रीआवड़ादि सातों देवियों के अवतरण से पूर्व हुआ था।