भगवान कृष्ण से संबंधित महाभारतकालीन मान्यताएँ
जिस समय राजा पाण्डू तपस्या करने के लिए इन्द्रद्युम्न सर और हंसकूट को छोड़कर शतश्रृंग नामक पर्वत पर गया, और वहां चारण लोगों के समूह का प्रीतिपात्र (प्यारा) बना जिसका उल्लेख महाभारत के आदि पर्व अध्याय 120, श्लोक 1 में हुआ हैं।
श्लोक
तत्रापि तपसि श्रेष्ठे वर्तमानः सवीर्यवान्।
सिद्धचारणसंघानां वभूव प्रियदर्शनः।।
वहां तपस्या करते हुए जब पाण्डू का देहान्त हो गया, तब यही चारण ऋषि पाण्डू के पांचों पुत्रों और उनकी माता कुन्ती को साथ लेकर हस्तिनापुर में आये, उस समय द्वारपालों ने उनके आने का राजा से निवेदन किया। इस प्रकार उन हजार मुनियों का आना सुनकर हस्तिनापुर के मनुष्यों को आश्चर्य हुआ जिसका उल्लेख महाभारत के आदिपर्व, अध्याय 126, श्लोक 111 में हुआ हैं।
श्लोक
तझ्चारणसहस्त्राणां मुनीनामागमं तदा।
श्रुत्वा नागपुरे नृणां विस्मयः समपद्यत ।।
अगस्त्य मुनि ने राजा युधिष्ठिरके सामने कुरूक्षेत्र और सरस्वती नदी की प्रशंसा करते हुए कहा कि हे युधिष्ठिर, जहां ब्रह्मादिक देवता, ऋषि, सिद्ध, और चारण रहते हैं उस सरस्वती के समीप धीर पुरूष मास पर्यन्त निवास करे। इसका उल्लेख महाभारत के वनपर्व, अध्याय 82, अंक 5 का श्लोक में हुआ हैं।
श्लोक
तत्र मासं वसेद्वीरः सरस्वत्यां युधिष्ठिर ।
यत्र ब्रह्मादयो देवा ऋषयः सिद्धचारणाः।।
जब राजा ययाति स्वर्ग में गया, तो वहां पर उनका बड़ा आदर सत्कार किया गया, गन्धर्व लोग गाते हुए, अप्सराएं नाचकर प्रसन्न करती हुई, और दुन्दुभि (नौबत नफ़ीरी) बजते हुए, इस तरह प्रीति पूर्वक आदर के साथ ययाति राजा का स्वागत किया गया। इस अवसर पर देवता, राजर्षि और चारणों ने राजा ययाति की अनेक प्रकार से स्तुति की और उत्तम अर्घ से पूजा और उनको देवताओं के द्वारा प्रसन्न किया गया। इस प्रमाण के अनुसार देवताओं की स्तुति करना चारणों का मुख्य धर्म था, और चारण शब्द की व्युत्पत्ति भी “चारयन्ति कीर्ति मितिचारणा” इस प्रकार हैं। राजा ययाति का उक्त प्रसंग महाभारत के उद्योगपर्व, अध्याय 123, श्लोक अंक 4 से 5 तक में आया हुआ हैं।
श्लोक
उपगीतोपनृत्तश्र्व गंधर्वाप्सरसां गणैः।
प्रीत्या प्रतिगृहीतश्र्व स्वर्गे दुन्दुभिनिः स्वनैः ।।
अभिष्ठुतश्र्व विविधैर्देवराजर्षि चारणैः ।
अर्चितश्र्वोत्तमार्घेण दैवतैरभिनंदितः ।।
दोनों तरफ की सेनाओं और अर्जुन को युद्ध के लिये तैयार देखकर श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा कि हे! अर्जुन, तू देवी की स्तुति कर, वह तेरे को विजय प्राप्त करा देगी। तब अर्जुन ने देवी की स्तुति की। हे देवी, तू तुष्टि, पुष्टि, घृति, दीप्ति, चन्द्र और सूर्य की वृद्धि करने वाली, और ऐश्वर्य वालों की ऐश्वर्य ऐसी, संग्राम में सिद्ध और चारणों को दिखाई देती हैं। इसका उल्लेख महाभारत के भीष्मपर्व, अध्याय 20, श्लोक अंक 16 में हुआ हैं।
श्लोक
तुष्टिः पुष्टिधृतिदीप्ति श्रवंद्रादित्यविवर्द्धिनी ।
भूतिर्भूतिमतां संख्ये वीक्ष्यसे सिद्धचारणैः ।।
चारण सच्ची ही तारीफ करते थे, ऐसा ही वर्णन महाभारत के द्रोणपर्व के 37 वे अध्याय में आया हैं कि महाभारत के युद्ध का वर्णन करते हुए संजय धृतराष्ट्र से कहता हैं कि हे धृतराष्ट्र, युद्ध में भीम का पराक्रम देखकर तेरो ने अर्थात् दुर्योधन, कर्ण आदि ने और चारणों ने प्रसन्न होकर भीमसेन की तारीफ की ।
श्लोक
दृष्ट्वा तु भीम सेनस्य विक्रम युधि भारत।
अभ्यनन्दँस्तवदीयाइच संप्रहृष्टाइच चारणा ।।
जयद्रथ को मारने के लिए द्रोणाचार्य ने जो व्यूह रचना की उसकी प्रशंसा देवता और चारणों ने की, जिसका वृतान्त संजय ने धृतराष्ट्र को सुनाते हुए कहा कि उस समय इस व्यूह रचना को देखते हुए देवता और चारणों ने कहा, कि पृथ्वी पर अंतिम समूह यही होगा, अर्थात् फिर ऐसी व्यूह रचना कभी न होगी। इसका उल्लेख महाभारत के द्रोणपर्व, अध्याय 124, श्लोक अंक 10 में हुआ हैं।
श्लोक
तत्र देवास्त्वभाषन्त चारणाश्र्व समागताः।
एतदन्ताः समूहा वै भविष्यन्ति महीतले ।।
श्रीमद्भागवत, रामायण और महाभारत के प्रमाणों से यह निश्चय हुआ, कि चारणों का कर्म तथा व्यवहार आदिकाल से ही उत्तम रहा हैं। राजा पाण्डू के मृत देह का दाह करना तथा पाण्ड़वों को हस्तिनापुर में लाना और हिमालय में रहना इत्यादि बातों से पृथ्वी पर निवास होना भी प्रमाणित हुआ, और जहां देवताओं का वर्णन हैं वहां चारणों का भी हैं, कारण यह हैं कि प्राचीनकाल में स्वर्ग, भूमि और पातालों का एक सम्बन्ध था, क्योंकि भारतवर्ष के दशरथादि अनेक राजा इन्द्र की सहायता को गये थे, और इन्द्रादिक देवताओं ने भी पृथ्वी पर आकर भूमिपालों की सहायता की थी। ऐसा मालूम होता हैं कि प्राचीनकाल में हिमालय पर्वत के मध्यस्त देश तिब्बत को स्वर्ग, और आर्यावर्त को भूमिलोक, और समुद्रतटस्थ दक्षिणी भारत को पाताल कहते थे। इसके प्रमाण में महाभारत के दो श्लोक नीचे दिये जा रहे हैं, जहां पर कि भारद्वाज ने भृगु से पूछा हैं।
श्लोक
अस्माल्लोकात् परोलोक : श्रूयते नच दृश्यते ।
तमहं ज्ञातु मिछामि तद्ववान् वक्तुमर्हति ।।
अर्थ :- हे महाराज ! इस लोक से परलोक सुना जाता हैं, परन्तु देखा नहीं जाता। उस परलोक का वृत्तान्त मैं आपसे जानना चाहता हूँ, तब भृगु ऋषि ने इस प्रकार उत्तर दिया।
श्लोक
उत्तरे हिमवत्पार्श्वे पुण्ये सर्व गुणान्विते ।
पुण्य : क्ष्येम्यश्रव काम्यश्र्व सपरोलोक उच्यते ।।
अर्थ :- उत्तर दिशा में हिमालय की पवित्र सब गुणों वाली भूमि के पास अति पवित्र विघ्नों रहित जो सुन्दर लोक हैं वही परलोक कहलाता हैं।
इस प्रकार से यह स्पष्ट होता हैं कि चारण लोग भी स्वर्ग से भूमिलोक में आते जाते थे, उनमें से बहुत से चारण भूमिलोक में आकर रहने लग जाने से उनका स्वर्गलोक से सम्बन्ध छूट गया, तब वे क्षत्रियों को वीर, दानी, गुणी, प्रजारक्षक व परोपकारी मानकर उनकी स्तुति में काव्य रचने लगे और क्षत्रिय राजा भी चारणों को पूज्य व स्वर्गीय देवता मानकर इनका खूब मान-सम्मान करते थे।