पुराणों आदि में वर्णित देवियों के अतिरिक्त ऐसी लोक देवियों का प्राकट्य भी समय-समय पर होता रहा हैं जो लौकिक होते हुए भी जनकल्याण हेतु अलौकिक कार्यों का सम्पादन कर लोक पूज्य देवियाँ बन गई।

लोक देवी अवतार का उद्देश्य :-

   ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र, अग्नि और सोम अपने पूर्णाश या खण्ड़ांश द्वारा पृथ्वी के जन-समाज की लुप्त हुई सात्विक वृति को जीवित करने के लिये सदैव चिन्हित रहते हैं, और जब संसार में दुष्ट लोग अधिक उत्पन्न होकर परपीड़न को ही अपना धर्म बना लेते हैं, समाज में उत्छृंखलता उत्पन्न हो जाती हैं, कर्त्तव्य अथवा अकर्त्तव्य का बोध जाता रहता हैं, मनुष्य का मनुष्य के प्रति क्या कर्त्तव्य हैं? एक वर्ग का दुसरे वर्ग के प्रति क्या कर्त्तव्य हैं? अथवा मनुष्य का पशु, पक्षी एवं वनस्पतियों के प्रति क्या कर्त्तव्य हैं? इनको भूलकर जब समिष्ट अर्थों को विपरीत समझने लगती हैं और संसार को धारण करने वाली शक्तियों में जनता की तामसिक बुद्धि के कारण वैपरीत्य उत्पन्न हो जाता हैं। गुण्डेबाजी अकर्त्तव्य को कर्तव्य का जामा पहना देती हैं तब जनता को कर्तव्य का जामा पहना देती है तब जनता को कर्तव्य का बोध कराने के लिए विष्णु-शक्ति या किसी अन्य देवी शक्ति को संसार में अवतरित होना पड़ता हैं। यही अवतारवाद का रहस्य हैं।

लोक देवी अवतार की अवधारणा तथा उसकी समीक्षा :-

 ऐसी मान्यता हैं कि जब-जब धर्म एवं संस्कृति पर संकट आता हैं तब-तब पृथ्वी पर देवी अवतार लेती हैं। इस धरा पर देवी स्त्री का रूप धारण करके अवतरित होती हैं अत: देवी को लोक देवी कहा जाता हैं क्योंकि वह स्त्री रूप में हमारे सम्मुख रहकर अपने चमत्कारों द्वारा जनकल्याण के कार्य करती हैं। इन जनकल्याण के कार्यों के करने से लोगों द्वारा इनका सम्मान किया जाता हैं। यहीं लोक देवी परम्परा हैं। लोक देवी (शक्ति) संसार में अवतरित होती हैं तो उसके सामने यह प्रश्न उपस्थित होता हैं कि अवतार पूर्ण कलायुक्त (महाशक्ति) होने की आवश्यकता हैं या खण्ड़ कलायुक्त (अंशावतार) होने की ?

लोक देवी के पूर्णावतार की अवधारणा :-

   महाशक्ति अवतार के रूप में अवतरित होने से पूर्व देवी सबसे प्रथम किसी देश के और कार्य की इयत्ता को अपना लक्ष्य बनाती हैं, यदि देवी को अपने अवतरण का परिणाम समस्त भू-मण्डल पर या अधिकांश जन समाज पर डालने की आवश्यकता प्रतीत होती हैं तो स्वयं पार्वती को अपनी पूर्णकला में पृथ्वी पर अवतरित होना पड़ता हैं। यही महाशक्ति अवतार की अवधारणा हैं।

    जीवन व्यवहार के प्रत्येक छोटे-मोटे कार्य देवी अपने हाथों से सम्पादित करती हैं। मध्यकाल में चारण जाति में असंख्य देवियों ने अवतार लिये है। मध्यकाल में चारण जाति में 84 महाशक्तियों ने अवतार लेकर इनके जातीय गौरव में वृद्धि की। जिनमें श्री आवड़ माता, श्री खोड़ियार माता, श्री बिरवड़ माता, श्री पीठड़ माता, श्री सेणल माता, श्री देवल माता, श्री करनी माता, श्री लाला फूला माता, श्री राजल माता, श्री चांपल माता, श्री गीगाई माता, श्री कामेही माता, श्री मोगल माता, श्री नाग बाई माता व श्रीदेवनगा माता आदि प्रमुख हैं। 20 वीं सदी में भी चारण जाति में श्री सोनल माता, श्री इन्द्र माता, श्री सायर माता व श्री लूंग माता जैसी देवियों ने अवतार लेकर इस जाति का गौरव को बनाये रखा। इन लोक पूज्य देवियों की वर्तमान में मान्यताएँ प्राचीन देवी-देवताओं से अधिक दिखाई देती है।

  अधिकांश लोक पूज्य देवियाँ गो पालन किया करती थी। भगवान श्रीकृष्ण की तरह कई लोक देवियों के इस धरा पर अवतार लेकर गो सेवा करने का उल्लेख मिलता हैं। ये महाशक्तियाँ गायों को चराती तथा उनकी सेवा करती थी। घर के छोटे-मोटे कार्य जैसे दुहना बिलौना करना, भोजन बनाना, खिलाना आदि इन देवियों के दिन-चर्या के अंग थे। साथ ही समय आने पर दुष्ट अत्याचारी शासकों से समाज की रक्षा करती थी। अत्याचारी शासकों का नाश करके वहाँ योग्य शासक को नियुक्त करती थी।

  महाशक्तियों में श्रीआवड़ माता ने सिंध के अत्याचारी शासक अदन सूमरा का नाश किया व अनेक दुष्ट राक्षसों को मार गिराया जिनकी संख्या 52 मानी जाती हैं। श्रीकरनी माता ने जांगलू के अत्याचारी शासक राव कान्हा का वध किया। श्री राजल माता ने अकबर बादशाह के लम्पट आचरण को ललकारा व राजपूत राजाओं को नौरोजा परम्परा से मुक्ति दिलाई। श्रीखोड़ियार माता ने वल्लभी के शिलादित्य सातवें को सत्ता से उखाड़ फेंक दिया था।

  इस तरह सभी देवियाँ जो सरल, शांति, निरभिमानी, ओजस्विनी, तपस्विनी एवं दीप्तिवान होते हुए भी राज सत्ता से निर्लिप्त रही जबकि इनके आशीर्वाद से बड़े-बड़े राज्यों की स्थापना हुई। श्रीआवड़ माता के आशीर्वाद से मांड़ प्रदेश में भाटियों ने और सिंध में सम्माओं ने राज्य स्थापित किया, श्रीकरनी माता के आशीर्वाद से राठौड़ों ने जोधपुर व बीकानेर जैसे सृदृढ़ राज्य की स्थापना की, श्री सेणल माता के आशीर्वाद से चौहान मालदेव का चितौड़ पर अधिकार हुआ तो श्रीबिरवड़ माता के आशीर्वाद के फलस्वरूप राणा हम्मीर ने खिजराबाद हो चुके चितौड़ को पुनः प्राप्त किया। इन देवियों ने बड़े-बड़े राज्यों की स्थापना व उथापना की तथा स्वयं शक्ति सम्पन्न होने के बावजूद भी इनकों सम्पति का, ग्राम ग्रास का, आधिपत्य का, सत्ता का कोई लोभ लालच नहीं था। इनका जीवन बहुत सादा एवं सरल था। ये देवियाँ महान् कर्म योगी जैसा जीवन व्यतीत करती थी। ये देवियाँ अपने जीवन व्यवहार से संयमशील, अभय, त्याग, बलिदान, एवं नि:स्वार्थ जीवन जीने की महत्ता का संदेश अपने अनुयायियों को देकर गये हैं। इन लोक देवियों ने अत्याचारी शासकों का उन्मूलन करके समाज की रक्षा की। इसलिए आज भी इन देवियों को बड़ी आस्था एवं विश्वासों के साथ पूजा जाता हैं।

समाज की स्थिरता, जीवन की पवित्रता और मनुष्य की नीतिमत्ता का आधार स्तम्भ ये देवियाँ हैं। समुद्र से भी बड़े संकट के सामने ये जूझी हैं। अनेक कष्ट एवं यातनाएँ झेली हैं। सांसारिक अग्नि ज्वाला को अपने रक्त के छींटों से बुझाकर संतप्त समाज को शीतलता प्रदान करने वाली देवियाँ शील, स्वधर्म, पवित्रता के लिए मौत के सामने कठोर से कठोर अनुष्ठान करती हैं। इन देवियों ने बड़े से बड़े राज्यों के साथ, बलवान से बलवान समूहों के साथ, सामाजिक रूढ़ियों के साथ, अन्याय के हर प्रंसग के साथ निर्भय होकर संघर्ष किया, जूझीं पर कभी पीछे हटने का नाम नहीं लिया। यहीं कारण हैं कि सैकड़ों वर्षों पूर्व अवतरित इन देवियों के प्रति आज भी जनमानस का दृढ़ विश्वास बना हुआ हैं।

अंशावतार की अवधारणा :-

परन्तु जब देवी इस निर्णय पर पहुँचती हैं कि किसी समाज विशेष की सात्विक वृत्तियाँ लुप्त होकर वह अर्थ-वैपरीत्य को अपना लक्ष्य बना चुका है। तो उसको कर्मयोग का बोध कराने के निमित्त देवी शक्ति को पृथ्वी पर आंशिक रूप में अवतरित होना पड़ता हैं। चारण जाति में देवियों के कुल नौ लाख अवतार लेने की मान्यता हैं कि जिनमें से सिर्फ 84 शक्तियों को ही महाशक्ति के रूप में मान्यता हैं बाकी सभी को देवी के अंशावतार के रूप में माना जाता हैं।

अत्याचारी शासन व्यवस्था को उखाड़कर सदाचारी शासन व्यवस्था की स्थापना में इन लोक देवियों की महत्ती भूमिका रही हैं। अन्याय व अनीति को इन देवियों ने कभी नहीं स्वीकारा। स्वकर्म में पुरूषार्थ ही इन देवियों का मूल मंत्र था। किसी भी व्यक्ति व समाज के अधिकारों की रक्षा के लिए बलवान से बलवान सत्ताधीशों के जुल्मों का सामना इन लोक देवियों ने करके अत्याचार का अन्त किया। आवश्यकता पड़ने पर आत्मबलिदान देकर भी इन्होंने लोकहित साधा हैं।

मातृ वात्सल्य की प्रतीक इन लोक देवियों ने अपने आचरण से मनुष्य-मनुष्य के बीच भेदभाव को अस्वीकारा एवं संदेश दिया कि मनुष्य में कोई बड़ा-छोटा, छूत-अछूत नहीं हैं। माता के लिए सभी संतानवत् समान हैं। श्री देवल माता ने मेघवाल जाति के अपने सेवक को जागीर में हिस्सा दिया तो उनकी मौसेरी बहिन श्रीकरनी माता ने भूरा नामक अनाथ को सनाथ बनाकर उसे पुत्रवत प्रेम दिया और दशरथ मेघवाल को देशनोक के निज मंदिर में पूजा का अधिकारी बनाया जो उनकी गायों की रक्षा करते हुए शहीद हुआ था। आज से 600 वर्षों पूर्व अछूत समझी जाने वाली मेघवाल जाति को ये सम्मान दिलवाना अद्वितीय ऐतिहासिक घटना हैं। श्री नागल देवी ने दलित दम्पति को अपनी गोद में ही धारण कर रखा हैं। सर्वप्रथम दलित दम्पति को नारियल चढ़ाया जाता हैं। जांन बाई ने तो दलितों वंचितों के अधिकार की रक्षार्थ अपने औरस पुत्र तक को त्याग दिया था। जाहल देवी ने लाधवा मेर की मर्यादा की रक्षार्थ अपने आत्मीय जनों से संघर्ष किया। बोघी बाई ने नंगे- भूखे मातृविहीन बालकों को अपनाकर माता का वात्सल्य दिया। धांनबाई ने मरी कुतिया के पिल्लों को स्तनपान कराकर पोषण किया। इन लोक देवियों ने अत्याचारी शासकों से समाज की रक्षा, वात्सल्यता, त्यागमूलक, सात्विक जीवन, गौपालन संस्कृति, वन सुरक्षा आदि कई उत्कृष्ट कार्यों के कारण जनमानस द्वारा इन लोक देवियों को श्रद्धा से याद किया जाता हैं। उनके प्रति दृढ़ आस्था व विश्वास को वैज्ञानिक युग में भी बनाये रखा हैं।

शक्ति के अवतरण की ऐतिहासिक एवं सामाजिक पृष्ठ भूमि तथाचारण जाति में शक्ति अवतरण की अनुकूलता :-

   हमारे हिन्दू धर्म में जगत के कल्याण हेतु समय-समय पर लोक देवियां अवतरित हुई हैं। वैसे शक्ति रूप में अवतार लेने का सौभाग्य बहुत कम जातियों को मिला हैं। लेकिन हम निष्पक्ष मूल्यांकन करे तो भारतीय इतिहास में यदि सबसे ज्यादा किसी जाति में देवियों ने अवतार लिया हैं, तो वह चारण जाति में लिया हैं। इसके पिछे चारण गण को सती का दिया हुआ वचन सत्य दिखाई देता हैं। इसी कारण चारण जाति में 84 महाशक्तियों ने अवतार लेकर इनके जातीय गौरव में वृद्धि की। जिनमें श्रीआवड़ माता, श्रीखोड़ियार माता, श्रीबिरवड़ माता, श्रीपीठड़ माता, श्रीसेणल माता, श्रीदेवल माता, श्रीकरनी माता, श्रीलाला फूला माता, श्रीराजल माता, श्रीचांपल माता, श्रीगीगाई माता, श्रीकामेही माता, श्रीमोगल माता, श्रीनाग बाई माता व श्रीदेवनगा माता आदि प्रमुख हैं। 20 वीं सदी के वैज्ञानिक युग में भी चारण जाति में श्रीसोनल माता, श्रीइन्द्र माता, श्रीसायर माता व श्रीलूंग माता जैसी देवियों ने अवतार लेकर इस जाति के गौरव को बनाये रखा। इन लोक पूज्य देवियों की वर्तमान में मान्यताएँ प्राचीन देवी-देवताओं से अधिक दिखाई देती है। यह बात चारण जाति का गौरव निश्चित तौर पर बढ़ाने वाली बात हैं। लेकिन प्रश्न उपस्थित होता हैं कि ऐसा क्या कारण हैं ? जिसकी वजह से अधिकांशत: देवियों ने चारण जाति में ही अवतार लेना उचित समझा ? यह सोचने तथा शोध कार्य करने वाली बात जान पड़ती हैं। चारण जाति के विद्वानों का कहना हैं कि माता सती का उन्हें वरदान हैं कि जब भी देवी रूप में मेरा इस सृष्टि पर अवतार

होगा तो मैं चारण जाति में अवतार लूंगी। चारण विद्वानों के इस तथ्य को धर्म ग्रंथों में व इतिहास की पुस्तकों को खोज ने पर ज्ञात हुआ कि चारण विद्वानों का यह दावा सत्यता पर आधारित हैं।

    रिपोर्ट :-मरदुमशुमारी राजमारवाड़ 1891 ई. (रायबहादुर मुंशी हरदयालसिंह) पुस्तक के पृ.सं. 347 पर आईन अकबरी के हवाले से लिखा हुआ हैं कि “महादेवजी ने अपने लिलाट के पसीने से चारण नाम 1 आदमी को पैदा करके अपने नंदी की सेवा पर रक्खा वह कवित्त कहता था अस्तुति करता था और अगले पिछले हाल की भी ख़बर देता था उसकी औलाद का नाम भी चारण हुआ”

     महादेवजी द्वारा उत्पन्न चारण ने पार्वती की स्तुति की। इस पर पार्वती ने खुश होकर कहा कि “जा नांदिये को चराला मेरा सिंघ कुछ नहीं करेगा और तूने मेरी स्तुति की जिसके प्रताप से तेरी संतान बिना लिखे पढ़े ही कविता किया करेगी” इस वरदान से चारण अपने को कवि भी कहते हैं माताजी को मानते और जय माताजी की करते हैं।

   चारण जाति की उत्त्पति के विषय में हरमाड़ा के प्रसिद्ध कवि बद्रीदानजी द्वारा लिखित ग्रंथ शिव पुराण में जानकारी मिलती हैं जो निम्न प्रकार से हैं।

    एक बार शिवजी ने गंगा के गर्भ से उत्पन्न एक बालक को लाकर पार्वती को दिया, जिसे पार्वती ने स्तनपान कराया तो दुग्ध श्रवित हुआ। यथा वर्णन 

जिकी ग्रभ थियो गंग जाणी, मा उमा गोद ले मेल्हियो रूद्र आणी।

उमा प्रेह कीधो थंणा खीर आयो, हितं जुत पोखि लडायो हुलायो।।

    वे लिखते हैं कि बड़ा होने पर उस बालक को भगवान शिवजी के वाहन नंदी को चराने व सार संभाल का काम बताया गया। इसी काल में शंखासुर नामक राक्षस द्वारा ब्रह्माजी के यहां से चारों वेदों के चोरी कर लेने तथा समुद्रतल में पहुंच कर उन्हें उदरस्थ करने की घटना से सभी देवता भयाकुल हो गये, सभी ने मिलकर भगवान् विष्णु से वेदों के उद्धार करने की प्रार्थना की। तब भगवान् ने मत्स्यावतार लिया और समुद्र में छिपे शंखसुर का उदर चीर कर चारों वेदों को ब्रह्माजी को लाकर दिया, किन्तु ब्रह्माजी को रक्त से सने वेदों से घृणा उत्पन्न हो गई तब महादेवजी ने अपने कमंडल के जल से उन्हें धोकर शुद्ध किया तथा उस वेद प्रक्षालित जल को उपरोक्त बालक को पीला दिया, जिससे उस बालक को गम्य अगम्य वाग्देवी वाणी सिद्ध हुई और उसको तथा उसकी संतान को सिद्ध चारण का पद प्राप्त हुआ।

वेदां नैजोय अपनी सूग ब्रह्मां, महासंत रतं लिप्तंबिखम्मा

निजा संकरं खप्परं दीध नीरं श्रीयां कंथ श्रीहथ्यधोयेसधीरं

लियोचारणां ताम आधोबुलावे प्रभू वेद धोये तको नीर पावे

अगम्मं गंम बाक वाणी उपजजे कवी चारणां सिद्ध जेसूं कह जे।

   वि.सं. 1642 माघ सुदी पंचमी के दिन चारणों की उत्त्पति को लेकर एक निंदात्मक टिप्पणी भाट जाति के लोगों ने अकबर के भरे दरबार में कर दी। तब लखाजी बारहठ ने आगरा में समस्त प्रमुख राजा महाराजाओं एवं बादशाह अकबर की उपस्थिति में कुलगुरू गंगारामजी को राजस्थान के जैसलमेर परगना के जाजियां गांव से बुलवाया और शिव पुराण से चारणों की उत्त्पति का वर्णन विस्तार से पढ़कर सुनाया। सब ने चारणों के श्रेष्ठ कुल उत्त्पति को माना। इस अवसर पर लखाजी बारहठ ने कुलगुरूजी को लाख पसाव और हाथी दान में दिया और बावन हजार बीघा भूमि वाला उज्जैन परगना गंदावल गांव लिख दिया। अब भी समस्त चारणों के एक ही कुलगुरू आज भी उज्जैन में निवास करते हैं। उक्त घटना का उल्लेख वर्तमान के कुलगुरू शक्तिदानजी की चौथी बही के पृ.सं. 583 पर बारहठ लखाजी के द्वारा दिया हुआ एक परवाना हैं।

  मुंशी देवी प्रसाद जिनका जन्म 1848 ई. में हुआ था जिन्होंने चारण जाति पर एक पुस्तक लिखी थी जिसका ओंकारसिंहजी लखावत ने हाल में ही चारण चमत्कार के नाम से सम्पादन किया हैं। इस पुस्तक के पृ.सं. 36 पर लिखा हैं कि मुंशी देवी प्रसाद ने श्रीमुरारदानजी से चारणों के कुल गुरू की बही में उक्त सम्बन्ध में जो प्राचीन सनद की जानकारी व लखाजी बारहठ के हस्ताक्षरित सीलशुदा सनद की प्रति प्राप्त की।

   श्रीमुरारदानजी सा उज्जैन तीर्थ यात्रा पर जब पधारे थे, तो चारणों के कुल गुरू की बही में लिखी उपर्युक्त सामग्री की नकल अपने हाथ से कर रखी थी। आपने उक्त सामग्री मुंशी देवी प्रसाद जी को मांगने पर दी थी।

  मुंशी जी ने उक्त रोचक विषय की जानकारी प्रसिद्ध साहित्यकार व लेखक पं. चन्द्रधर शर्मा गुलेरी को दी।

  पं. चन्द्रधर शर्मा ने उक्त सामग्री को आधार बना कर एक विस्तृत आलेख वि.सं. 1977 को नागरी प्रचारिणी पत्रिका में प्रकाशित करवाया। इसका उल्लेख चारण चमत्कार (लेखक मुंशी देवी प्रसाद सं. ओंकारसिंह लखावत) के पृ.सं. 40, चारण नी अस्मिता (लेखक लक्ष्मण पींगलसी गढ़वी) पुस्तक के पृ.सं. 431, चारणों कुल गुरू की चौथी बही के पृ.सं. 583 से भी होता हैं।

    “परवाना। लीखवतां बारट जी श्री लषोजी समसत चारण वरण वीसजात्रा सीरदारां सूं श्री जेमाता जी की बांच ज्यो। अठे तषत आगरा श्री पतसाजी श्री 108 श्री अकबर साहजी रा हजुरात दरीषानां मांही भाट चारणां रा कुल री नंदीक ‘कीधी’ जण वषत समसत राजेसुर हाजर था, वां का सेवागीर भी हाजर था, जकां सुण अर मो सु समंचार कह्या जद सब पंचा री सला सु कुल गुरू गंगाराम जी प्रगणै जेसलमेर गांव जाजीयां का जकाने अरज लिषि अठे बुलाया। गुर पधारया री पातसाह जी नी रूबकारी में चारण उत्पत्ती सास्त्र शिव रहस्य सुणयो पंडतां कबुल कीधो जण पर भाट झूठा पड्या गुरां चारण वंस री पुषत राखी। नीवाजस सारा बुता सु सीवाय बंदगी कीधी और मारा बुता माफक हाती लाख पसाव पृथक दीधो। गांव की ओवज बावन हजार बीघा जमी ऊजेण के प्रगने दीधी जकण रो तांबा पत्र श्री पातसाह जी का नांव को कराय दीधो। अण सवाय आगा सु चारण वरण समसत पंचां कुलगुरू गंगाराम जी का बाप दादा ने व्याव हुए जकण में कुलदापा रा रूपिया 1711 और त्याग परट हुए जीण मां मोतीसरां को नांवो बंधे जीण सु दुणो नांवा कुलगुरू गंगाराम जी का बेटा पोता पायां जासी। संमत 1642 रा मीती महा सुद 5 दसकत पंचोली पन्नालाल हुकम बारठ जी सु लीषो तषत आगरा समसत पंचां की सलाह सूं आपांणों यां गुरां सू अधीकता दुजो नहीं छै।” 

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