किन्दर किण विवर बसत किनियांणी !

!!किन्दर किण विवर बसत किनियाणी-2 जागावत हिंगऴाजदानजी !!
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जागावत हिंगऴाजदानजी रचित चिरजा, जिसको वर्तमान पीढी के गायन विद्या के सिध्दहस्थ साधकों के लिये असंम्भव नही तो दुरूह तो अवश्य ही है, इस को सौरठ राग मे मध्यरात्री मे ऊंची आलाप व स्वरों के आरोह अवरोह मे गाया जाये तब ही इसका सही रिदम बैठ पाता है !!

श्रीमढ तेमङाराय धाम मे पधारे धुरंधर गायक शायद यह प्रयास करके अपनी कला की आभा का प्रकाश प्रकट कर सकते है, ऐसी मेरी आशा है माँ भगवती उन्है सफल मनोरथ करै !!

!! सवैया !!

महिषासुर मारन वारि अहा
तुम इन्द्र रवी प्रगटावत हो !
सुर ईश हरी अज सेवत है तब
शुम्भ निशुम्भ नसावत हो !
कवि लोगन को दुख काटन कूँ
जगदम्ब विलम्ब न लावत हो !
हिंगळाज कहे कलिकाल हि में
करनी इन्दरेश कहावत हो !!

!! चिरजा !!

किन्दर किण विवर बसत किनियांणी !
किन्दर किण विवर बसत किनियांणी !!

धरि दिव्य जोग तणी दूग निद्रा,
श्रवण मूंद सुरराणी !
जाप जपत कहाँ आप अजपा,
वृत्ति स्वाछि ज्योति लुभाणी !!1!!

ढुळ गई हाय माय बड़ डूंगर,
दीन त्याग धिनियाणी !
दृष्टि न आत सृष्टि में दूजी,
मो मन विपत्ति मिटाणी !!2!!

हे सुर राय आप कूँ हूँ तो,
करङी आण कढ़ाणी !
आण लोप आवड़ की अम्बा,
गिरकिण ध्यान लगाणी !!3!!

आई नाम वेद चहुँ आखै,
अब तक भी नहीं आणी !
कारण कवण बेर थे कीन्ही,
धर देशाण घिराणी !!4!!

बहरी भई कहां सिंह बूढो,
कहां पद हीण कहाणी !
पिन्ड कहां हाय कछु ना पौरष,
कहां यह काज सकाणी !!5!!

अवलंब प्रलंब आपको अम्बा,
बेदां सुकवि बखाणी !
कहे हिगळाज आज आ करनी,
हो रही ब्रद तव हाणी !!6!!

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