भूमिका
भूमिका
भगवती श्रीकरनीजी जी की कृपा से “लोक देवी परम्परा श्रीकरनी माता एक विशेष अध्ययन” विषय पर मेरा पीएचड़ी शोध कार्य 2008 ई. में पूर्ण हुआ। इस शोध ग्रंथ का श्रीकरनी माता का इतिहास नाम से प्रकाशन हुआ। उस शोध ग्रंथ में मैंने श्रीकरनी माता के आराध्य श्रीआवड़ माता के इतिहास पर भी कुछ पृष्ठ लिखे थे। इसके बाद मेरे मन में भगवती श्रीआवड़ माता पर एक प्रमाणिक इतिहास लिखने की प्रबल इच्छा हुई। इस कार्य को करने के लिए मैंने राजस्थान, गुजरात जाकर श्री आवड़ादि सातों देवियों के धामों के दर्शन किये। मैं श्रीआवड़ादि से सम्बन्धित इतिहास व साहित्य के संग्रहण के लिए श्रीखोड़ियार माता के माटेलधाम दर्शन करने गया, वहां मुझे खोड़ियार माता पर लिखित तीन गुजराती पुस्तके जिनके नाम आई खोड़ियार गीता, आई श्री खोड़ियार आख्यान, आद्य शक्ति आई श्री खोड़ियार मां मिली। फिर वहां से राजकोट गया तो मेरा मिलना इतिहास व साहित्य प्रेमी प्रवीण भाई मधुड़ा से हुआ। इन्होंने मुझे श्रीआवड़ माता पर स्व. श्रीमूलसिंहजी भाटी द्वारा लिखित पुस्तक भगवती श्री आवड़जी महाराज पुस्तक की फोटोकॉपी उपलब्ध कराई। जो 1985 ई. में एक ही बार प्रकाशित हुई थी। इस पुस्तक को पढ़ने पर लगा की भगवती श्रीआवड़ माता पर लिखी यह एक विश्वसनीय व प्रमाणिक पुस्तक हैं। मैंने इस पुस्तक का श्रीआवड़ चरित्र के नाम से सम्पादन किया। इस पुस्तक का प्रकाशन 2016 ई. में राजस्थानी ग्रंथागार जोधपुर से करवाया। अगले ही वर्ष 2017 ई. में मेरी श्रीकरनी माता के चमत्कार पुस्तक के लिखने का कार्य भी पूरा हो गया। इस कार्य के पश्चात् मैं पूरी तरह से श्रीआवड़ माता के इतिहास लेखन कार्य में लग गया। मैं इस कार्य को करने के लिए गुजरात के रोहिशाला, राजपरा धामों के दर्शन करने के लिए गया। इसके साथ ही जैसलमेर जिले के तनोट, भादरिया, तेमड़ा, देगराय, साबड़मढ़राय, काले डूंगर राय, नभ डूंगरराय, स्वांगियाजी, पनोदरराय आदि व बाड़मेर जिले चालकनू, वीरातरा, नागाणा व जालोर जिले के सुंधा माता व जोधपुर जिले के दुगाय माता आदि स्थलों पर कई बार दर्शन करने के लिए गया। इन धार्मिक यात्राओं से मुझे कार्य करने की प्रेरणा व ऐतिहासिक सामग्री दोनों मिलती गयी। इस दौरान मेरी श्रीकरनी माता व श्रीआवड़ माता पर लिखी फेस बुक पोस्ट पढ़कर सिंध के कुछ हिन्दू भक्त भी मेरे सम्पर्क में आ गये जिनमें खारोड़ा के प्रो. जयदेव कुमार कुलरिया (सूथार), साहित्यकार प्रो. भारूमलजी अमरानी, जगतजी देवल आदि मुख्य हैं। भारूमलजी अमरानी ने चतर बोली चारण नाम से एक पुस्तक सिंधी भाषा में लिखी थी। उन्होंने मुझे अंग्रेजी में Janet kamphorst की लिखी “In praise of death history and poetry in medival marwars” पुस्तक व उनकी लिखी चतर बोली चारण मैंसेजर के द्वारा उपलब्ध करवायी। जयदेव भाई मुझे सिंध के श्री आवड़ माता के स्थान हाड़ का वड़, सतियों का स्थान व हाकरा नदी के बारे में जानकारी उपलब्ध करवायी। इस प्रकार से मैंने सिंध, गुजरात व राजस्थान प्रान्तों से श्रीआवड़ादि सातों देवियों के बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त की तथा जैसलमेर की ख्यात, जैसलमेर की तवारीख, जैसलमेर के इतिहास की जानकारी एकत्रित की और जैसलमेर के श्रीआवड़ माता के मंदिरों के शिलालेखों का फोटों खींचकर पुरातात्विक सामग्री का संकलन किया। श्रीखोड़ियार माता से सम्बन्धित शिलादित्य सातवां के बारे में जानकारी प्राप्त करने के लिए वलभी का प्राचीन इतिहास भी पढ़ा तो शिलादित्य सातवां के समय के सिक्कों की भी जानकारी प्राप्त हुई जो श्री आवड़ादि देवियों के अवतरण के कालक्रम के निर्धारण के लिए अत्यन्त ही उपयोगी सिद्ध हुए। श्रीखोड़ियार माता, श्रीहोल माता, श्रीगेल माता आदि के बारे में जानकारी प्राप्त करने के लिए मैंने गुजराती भाषा का ज्ञान प्राप्त करके गुजराती ग्रंथों को पढ़ना सीख लिया। इस प्रकार से करीब 14 वर्ष का समय श्रीआवड़ादि देवियों का साहित्य व इतिहास एकत्रित करने व लिखने में लगा। इस दौरान झांकर के श्रीकरनी माता मंदिर का व मेरे मकान श्रीदेवलकोट का निर्माण कार्य चलता रहा। इसके कारण से मेरा कई महीनों तक लेखन कार्य भी छुट जाता था। लेकिन भगवती श्रीकरनीजी व श्रीआवडादि सात देवियों की अतिशय कृपा से आखिरकार मेरे मन की इच्छा पूरी हुई और आज देवी उपासक पाठकों तक श्रीआवडादि देवियों का एक प्रमाणिक इतिहास प्रकाशित होकर पहुंच रहा हैं। यह मेरे लिए अत्यन्त हर्ष का विषय हैं। मैं स्वयं को भगवती श्रीकरनी माता का जन्मजमान्तर का दास मानता हूँ। माँ श्रीकरनीजी मेरी आराध्या हैं। मैं भगवती श्रीकरनी माता के जन्मोत्सव पर उन्हें यह ग्रंथ समर्पित कर रहा हूँ। भगवती श्रीकरनी माता को उनके आराध्या श्रीआवड़ादि देवियों का यह ग्रंथ समर्पित करते हुए मुझे अपार हर्ष हो रहा हैं। इस अवसर पर मैं भगवती श्री करनी माता से करबद्ध प्रार्थना करता हूँ कि इस ग्रंथ के लेखन में मुझ दास द्वारा किसी तरह की भूल हो गई हो तो मुझे अपना बालक समझकर क्षमा करावे। मुझे इस बात का पूरा पता हैं कि श्रीकरनी माता द्वारा पूजित महाशक्ति श्रीआवड़ माता के चरित्र को सिर्फ एक पुस्तक में समेटना बहुत ही मुश्किल हैं। भगवती श्री हिंगलाज माता के पूर्णावतार श्रीआवड़ादि सातों देवियों के असंख्य चमत्कार हैं, जिन्हें गिन पाना असम्भव हैं। जिन्हें संकलित करने के लिए मानव क्या विधाता भी असमर्थ हैं। इन देवियों के चरित्र को पुस्तक में लिपिबद्ध करने के लिए इस सम्पूर्ण सृष्टि के बराबर कागज व सातों समुद्रों जितनी स्याही की आवश्यकता हैं।
हे जगत की जननी श्रीआवड़ माँ! मैं अपने पूर्वज प्रथम राष्ट्र कवि दुरसाजी आढ़ा की उस पंक्ति से पूर्णत: सहमत हूँ कि आपकी कीर्ति व यश अपार हैं परन्तु मानव मात्र के तो एक ही जीव्हा होती हैं। जो आपका यश गाते-गाते थक जाती हैं। अर्थात् आपकी कीर्ति अपरम्पार हैं। आपका यश तो करोड़ों जीव्हा (करोड़ों मानव) मिलकर भी नहीं गा सकती।
किणंतां जपो दुरसौ कहे, जीह हेक अपार जस।
(महाकवि दुरसा आढ़ा कृत ‘छंद चाळकनेची रा’)
मैंने श्रीआवड़ादि सातों देवियों पर इतिहास की दृष्टि से यह ग्रंथ लिखा हैं जिसमें मुझे कई लोगों से प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से सहयोग, मार्गदर्शन, प्रेरणा व लेखन सामग्री प्राप्त हुई जिनका मैं हृदय से कोटि-कोटि आभार प्रकट करता हूँ।
सर्वप्रथम मेरी स्वर्गीय माँ श्रीमती आनन्द कंवर से मुझे बचपन में भगवती श्रीकरनीजी के प्रति दृढ़ आस्था सम्बन्धी संस्कार मिले और उनके पुण्य कार्यों के परिणामस्वरूप मुझे भगवती श्री आवड़ माता पर ऐतिहासिक दृष्टि से शोध ग्रंथ लिखने का अवसर मिला। मेरे पिताजी के भुँआसा स्वर्गीय श्रीमती दरियाव देवी जी सुपुत्री श्री सांवलदानजी आढ़ा के आध्यात्मिक व्यक्तित्व का गहरा प्रभाव मेरे पर पड़ा जिसके परिणामस्वरूप मेरा यह ग्रंथ अपने वर्तमान रूप में परिणित किया जा सका। मैं भुँआसा स्व. श्रीमती दरियाव देवीजी को ही बचपन से अपना आध्यात्मिक गुरू मानता हूँ। आपके सात्विक व त्याग मूलक जीवन से मेरी दृढ़ आस्था, उच्च विचार व भक्ति-भाव में अभिवृद्धि हुई। आपके आदर्श व्यक्त्वि से मुझे बहुत प्रेरणा मिलती रही। भुँआसा के आध्यात्मिक ज्ञान, संस्कार एवं उपदेशों से मुझे समय-समय पर मार्गदर्शन मिलता रहा। मैं स्वर्गीय भुँआ सा व स्वर्गीय माँ आनन्द कंवर का नतमस्तक होकर नमन करते हुए हृदय की अतल गहराईयों से आभार प्रकट करता हूँ।
इस पुस्तक के लेखन कार्य में मेरे नानाजी कानदानजी बारहठ (सेवानिवृत आर. ए. एस. गांव खारी खुर्द), पिताश्री गोविन्दसिंहजी आढ़ा, मामोसा डॉ. राजेन्द्रजी बारहठ, धर्मपत्नी आनन्द कंवर बारहठ (भादरेस), सासुजी श्याम कंवरजी, मामी ससुरजी मोहनसिंहजी गाड़ण, सालाजी मदनसिंहजी गाड़ण, पुत्र करणी प्रताप आढ़ा (परम) व चालराय प्रताप आढ़ा (दिव्य) आदि पारिवारिक सदस्यों के अपेक्षित सहयोग, मार्गदर्शन, सद् प्रेरणा से इस पुस्तक को मूर्त रूप दिया जा सका। पुत्र करणी प्रताप का तकनीकी ज्ञान मेरे लेखन में सर्वाधिक सहायक रहा। भगवती श्रीकरनी माता की कृपा दोनों पुत्रों पर सदैव बनी रहे।
इस पुस्तक के लेखन में आदरणीय श्रीओंकार सिंहजी लखावत टेहला, डिंगल के विद्वान जयसिंहजी सिंढायच व उनके भाई भंवरसिंहजी गांव मण्डा जिला राजसमंद, शिवसिंहजी राठौड़ बीकानेर, प्रहलादसिंहजी झाला, राजेशजी मिश्रा, प्रवीण भाई मधूड़ा राजकोट, सांगसिहजी पड़ियार पूजारी देगराय मंदिर, जितेन्द्रजी गिरी पूजारी रोहिशाला, सांगीदानजी चालकनू, अनिल (भीमजी) कुमार जी व्यास देवास, भैरूसिंहजी सौदा डीड़वाना, डॉ गजादानजी चारण, हुकमसिंहजी सिसोदिया समीचा, के.के. नवलखाजी काठमाण्डू, अशोक भाई राजकोट, जयदेवजी कुलरिया खारोड़ा सिंध पाकिस्तान, जगत सा देवल नया छोर सिंध पाकिस्तान, भारूमलजी अमरानी सिंध पाकिस्तान, हरिसिंहजी सोढ़ा भलूरी, जयदीपजी कुंभाणी मुम्बई, लक्ष्मी नारायणजी सोनी डूंगरगढ़, डॉ पूनाराम पटेल रोहिड़ा, भरत कुमार माली, दीपकसिंह आढ़ा, बलवन्तसिंह आढ़ा आदि भक्त श्रद्धालूओं का हृदय से आभार प्रकट करता हूँ। आप सभी की प्रेरणा, मार्गदर्शन व सहयोग के कारण इस ग्रंथ को वर्तमान स्वरूप दिया जा सका। भगवती श्रीकरनी माता व श्रीआवड़ादि देवियों की अतिशय कृपा की वजह से इस पुस्तक का लेखन कार्य सम्पन्न हुआ हैं। इस पुस्तक में भविष्य में ओर भी श्रीआवड़ादि देवियों के महत्वपूर्ण चमत्कारों को समावेशित किया जायेगा।
मैं श्रीआवड माताजी से इस अवसर पर प्रार्थना करता हूँ कि मुझे आप पर लेखनी चलाने का बारम्बार अवसर प्रदान करते रहे। पुस्तक के लेखन कार्य में किसी तरह की कोई त्रुटि रह गई हो तो मुझ बालक को क्षमा करावे और अपने भक्तों पर सदैव इसी तरह की कृपा बनाये रखे।
इस ग्रंथ में आठ अध्याय हैं। प्रथम अध्याय लोक देवी परम्परा पर हैं। जिसमें अवतारवाद, लोक देवी, लोक देवी अवतार का उद्देश्य, लोक देवी अवतार कीअवधारणा, लोक देवी का पूर्णावतार व अंशावतार की अवधारणा, चारण जाति में शक्ति अवतरण की अनुकूलता तथा शक्तिपीठ हिंगलाज माता के बारे में वर्णन किया गया हैं।
द्वितीय अध्याय में भगवती श्रीआवड़ादि सातों देवियों के अवतरण लेने वाली चारण जाति के पौराणिक इतिहास का उल्लेख किया हैं। इस अध्याय में धार्मिक ग्रंथों वाल्मिकी कृत रामायण, वेद व्यास कृत महाभारत, श्रीमद् भागवत, शिव पुराण, विष्णु पुराण, गरूड़ पुराण, मत्स्य पुराण, वायु पुराण आदि में चारण जाति के बारे में जो उदहरण आये हैं। उनका उल्लेख करते हुए चारण जाति की उत्पति के बारे में लिखा गया हैं। चारण जाति का भगवान शिव, पार्वती, सती, ब्रह्मा, विष्णु, राम व हिंगलाज माता के साथ सम्बन्धों का उल्लेख किया गया हैं।
इसी अध्याय में चारणों का भूमि लोक पर आगमन, यूरोपीयन विद्वानों के अनुसार चारण जाति के बारे में जानकारी का उल्लेख किया हैं। इसके साथ श्रीआवड़ माता से पूर्व चारण जाति में जन्म लेने वाली वाक् देवी, गिरा देवी, हिंगलाज देवी के बारे में जानकारी दी गयी हैं।
तृतीय अध्याय में श्रीआवड़ माता के पूर्वजों का सिंध से आगमन की जानकारी दी गयी हैं। इसी अध्याय में श्रीआवड़ माता के पिताजी मामड़जी व भुँआजी वांकल माता के बारे में विस्तृत जानकारी दी गयी हैं। इसके साथ ही वांकल माता के मंदिर व चमत्कारों के बारे में लिखा गया हैं।
चतुर्थ अध्याय में श्रीआवड़ माता के पिताजी मामड़जी का वलभीपुर आगमन का लिखा गया हैं। वलभी के राजा शिलादित्य सातवां के द्वारा मामड़जी का अपमान करने का उल्लेख किया गया हैं। इस अध्याय में श्रीआवड़ादि के जन्म का समय, जन्म का स्थान, इन बहिनों के नामों, धामों व चमत्कारों की जानकारी दी गई हैं। इसके साथ इन देवियों के भाई मेहरखजी की खेतरपाल के रूप में ख्याति, इनके चमत्कार, मान्यताओं व प्रमुख मंदिर की जानकारी दी गई हैं।
पंचम अध्याय में श्रीआवड़ादि देवियों के चमत्कार का वर्णन किया गया हैं जिनमें कठियारे को नदी पार कराना एवं सूर्य को उदय होने से रोकना, हाकरा दरियाव का शोषण करना व भाई महिरख को जीवनदान देने के लिए सूर्य को उदय होने से रोकना आदि कई चमत्कारों व मान्यताओं का वर्णन किया गया हैं।
षष्टम् अध्याय में श्रीआवड़ माता द्वारा भाटी शासकों की गई चमत्कारी सहायता का ऐतिहासिक दृष्टि से वर्णन किया गया हैं। श्रीआवड़ माता के समकालीन शासक राव केहर, राव तणू, राव विजयराव चूड़ाला व सिद्ध देवराज थे। इनकी देवी ने समय-समय पर सहायता करके भाटी राज्य को सुदृढ़ बनाकर स्थाईत्व प्रदान किया जिसके कारण इन्होंने श्रीआवड़ माता को श्रीस्वांगिया माता के नाम से अपनी कुल देवी के रूप में स्वीकार किया।
सप्तम अध्याय में श्रीआवड़ माता के बावन नामों व इनके प्रमुख धामों का ऐतिहासिक दृष्टि से वर्णन किया हैं। इस अध्याय में शिलालेखों, मान्यताओं, बहियों, तवारीखों, ख्यातों व इतिहास के ग्रंथों के आधार पर लिखा हैं। श्रीआवड़ माता के बावन नामों की मान्यताओं पर तार्किक दृष्टि प्रकाश डालने का प्रयास किया हैं।
अष्ठम् अध्याय में श्रीआवड़ माता पर रचित साहित्य का उल्लेख किया हैं। इस अध्याय में इन देवियों पर रचे गये प्राचीनतम छंद, दोहे, सोरठे, चिरजाएं, निसांणी कवित्त, श्रीआवड़ माता की आरती व चालीसा का भी संकलन किया गया हैं।