भगवान विष्णु से सम्बंधित मान्यताएँ :-
समुद्र मंथन के समय मंदराचल से देवता और दानव समुद्र मंथन नहीं कर सके, तब वे विष्णु के निवास स्थान पर आये उस समय विष्णु भगवान योगनिन्द्रा में निमीलित नयन थे। इसका उल्लेख मत्स्य पुराण के 249 अध्याय में हुआ हैं।
श्लोक
स्तूयमानं समन्याच्च सिद्ध चारण किन्नरैः।
आभ्रायैर्मूर्तिमद्द्मिश्च स्तूयमानं समन्ततः ।।
सव्यबाहूपधानं तं तुष्टुवुर्देवदानवाः ।
कृताझ्झजलिपुराः सर्वे प्रणताः सर्वतोदिशम् ।।
अर्थ:-सिद्ध, चारण और किन्नर तथा मूर्तिमान वेद जिनके चारों तरफ स्तुति कर रहे हैं। बाई भुजा को सिराहने रखकर शयन किये हुए विष्णु भगवान की देवता और दानव हाथ जोड़ नमस्कार कर स्तुति करने लगे। यहां सिद्ध, चारण, किन्नर इन देवताओं की और वेदों की स्तुति से समुद्रशायी विष्णु का महात्म्य सूचित किया गया हैं, वेद भी परमेश्वर की स्तुति करने वाले हैं। परमेश्वर की स्तुति तो ब्रह्मादिक समस्त देवता करते हैं परन्तु देवताओं के कवि तो चारण देवता ही हैं।
भूत-प्रेत और पिशाच इनका आचरण यानी बरताव अशुद्ध होने से देवताओं ने शुरू से ही इनका त्याग कर दिया, इसलिए देवताओं के साथ में इनका वर्णन नहीं मिलता हैं, और इनका अशुद्ध आचरण दुनिया में भी प्रसिद्ध हैं।
सब देवताओं ने शामिल होकर समुद्र मंथन करने से उसका बड़ा लाभ हुआ। इनको 14 रत्न हाथ लगे। इन 14 रत्नों में एक अमृत भी था। इस अमृत को पीने के लिए असुरों और देवताओं के बीच बड़ी भारी लड़ाई हुई। उस लड़ाई को देवासुर संग्राम कहते हैं। दैत्य दानव ये सभी असुर हैं। राक्षस भी असुरों में शामिल रहे। इस लड़ाई के कारण से देवताओं और असुरों में आपसी बैर हो जाने से सतजुग में असुर और राक्षस स्वर्ग लोक को छोड़कर मृत्युलोक में आकर आबाद हुए। दैत्यों में हिरण्यकश्यिप, बलि आदि बड़े राजा हुए हैं। राक्षसों में लंका का राजा रावण नामी हुआ हैं। दैत्यों और राक्षसों ने सेना सहित कई बार मृत्युलोक से स्वर्गलोक जाकर देवताओं के राजा इन्द्र को पराजित किया। कलियुग में महाभारत होने तक दैत्यों और राक्षसों की औलाद मृत्युलोक में मौजुद थी। कृष्णा अवतार ने तृणावर्त, अघासुर आदि कई दैत्यों को मारा था और पांडव भीम के हिडंबा नाम की राक्षसी से घटोत्कच पुत्र पैदा हुआ था। घटोत्कच बड़ी बहादुरी के साथ लड़ता हुआ महाभारत के युद्ध में मारा गया। इस समय भी अक्लमंद लोग शिक्षा प्राप्त करने के लिए अंगरेजों की विलायत में जाया करते हैं। वैसे ही सुमेरू पर्वत के स्वर्गलोक में मृत्युलोक के मनुष्य भी जाते थे। पाण्डू पुत्र अर्जुन भी अस्त्र विद्या की शिक्षा प्राप्त करने के लिए स्वर्गलोक में गया था और वहां वे 5 वर्ष तक रहे थे। इसका उल्लेख महाभारत के वनपर्व के चवालीसवे अध्याय में हुआ हैं।
उपशिक्षन्महास्त्राणि संसहाराणि पाण्डवः।
शक्रस्य हस्ताछयितं वज्रमस्त्र च दुःसहम् ।।
पुरदर नियोगाच्च पंचाव्दानव सत्सुखी ।।।
अर्थ :- अर्जुन ने संहार सहित बड़े अस्त्र सीखते हुए देवताओं के राजा इन्द्र को बहुत प्रसन्न किया और इन्द्र के पास से उसने वज्रास्त्र का प्रयोग करना सीख लिया जिसका मुकाबला करने की ताकत किसी के पास नहीं हैं। इन्द्र की आज्ञा से अर्जुन वहां 5 वर्ष तक सुख से रहा।