बऴू म्हांरै इन्द्र बाई सा !कऴू रो म्हांनै सोच न कांई सा !!
!! बऴू म्हांरै इन्द्र बाई सा !!
!!कऴूरौ म्हांनै सोच न कांई सा !!
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प्रस्तुत चिरजा रचना उच्चत्तम भाषाभाव के तारतम्य से सृजित है, पर इस रचना के रचियता पर निश्चित तौर पर कहने मे मैं असमर्थ हूं, क्योंकि इसके रचियता श्री हिंगऴाजदान जी है, कविया या जागावत यह बात सुनिश्चित करना मैरे भी बस की बात नही है, यह तो दोनों कवेसरों के विज्ञ वशंज ही बता सकते है, हालांकि मैं भी इन दोनो कवेसरों का संकलन रखता हूं पर इस चिरजा मे कवि का नाम बताने मे असमर्थ हूं, इसके लिये क्षमाप्रार्थी हूं !!
कवित्त !!
यही है उपाय जगदम्ब
की शरण आव,
गावत निगम वाको
दया को सुभाव रै !
नेक ज्यों कृपा की
अवलोकन निहाल करैं,
रिध्दि सिध्दि देत रू
करत रंक राव रै !
जनजन जांचबै की
बान तज वाकौ भज,
ध्यान पद कंज धर
बन्यो नीको दाव रै !
नरन सौ बोल, बोल
खोवत कहां मोल मोल,
होवत कहां डांवांडोल
मेरे मन बावरै !!
चिरजा
बऴू म्हांरै इन्द्र बाई सा !
कऴू रो म्हांनै सोच न कांई सा !!
जगत उजागर जनमियाँ,
दुरगा सागर धीह !!
खड़ा सहायक खुड़द में,
सगत पलाण्यां सीह !!1!!
तप गरदाणू चौतरफ,
बप मरदानो भेष !
ऊगा सूरज ईश्वरी,
दीपै मरूधर देस !!2!!
धारयाँ साफौ धोवती,
कुड़तो अथवा कोट !
फाबै कदमा फूटरी,
जुग मोचड़ियाँ जोट !!3!!
मूरत डोरो मूंदडी,
लाला जड़त लवंग !
करगां अठ पहलू कड़ा,
ऐ आभूषण अंग !!4!!
दरसाई आठूं दिसा,
सकळाई संसार !
आई गेढै अवतर्या,
सरणाई साधार !!5!!
चित्त मत डरपो चारणां,
नासत समय निहार !
जगदम्बा राखें जिकां,
मिनख सबै ना मार !!6!!
बरसै अमृत बोलतां,
हरषै कवि हिंगलाज !
श्री हातां करसी सदा,
कवि पाता सिध्द काज !!7!!