देवी हिंगलाज शक्तिपीठ सम्बन्धी चारण जाति की मान्यताएँ :-

या देवी सर्वभूतेषु शक्ति रूपेण संस्थिता ।

नमोस्तस्यै नमोस्तस्यै नमोस्तस्यै नमो नमः।।

      जिस तरह भगवान पुरूष रूप में धर्म-अधर्म का यथार्थ बोध कराने हेतु समय समय पर माता के गर्भ से उत्पन्न होते रहे है।, उसी प्रकार शक्ति भी युगो-युगो से विभिन्न रूप धारण करती रही हैं। धर्म ग्रंथों के अनुसार एक मान्यता है कि ब्रह्माजी के पुत्र दक्ष प्रजापति की पुत्री सती का विवाह भगवान शंकर के साथ हुआ था। एक बार ब्रह्मा, विष्णु और महेश एक ही स्थान पर विराजमान थे। दक्ष प्रजापति के आगमन पर ब्रह्माजी एवं विष्णु भगवान ने उठकर दक्ष प्रजापति का अभिनंदन किया परन्तु भगवान शंकर अपने स्थान पर यथावत बैठे रहे। दामाद के इस तिरस्कृत व्यवहार से कुपित होकर दक्ष प्रजापति ने भगवान शंकर को नीचा दिखाने की धारणा पक्की कर ली। इस हेतु दक्ष प्रजापति ने हरिद्वार में एक अभूतपूर्व यज्ञ का आयोजन किया। सारे देवी देवताओं को यज्ञ में आने का निमंत्रण भेजा लेकिन भगवान शिवजी को उसने कोई निमंत्रण नहीं भेजा। कैलाश पर्वत पर विमान द्वारा उतरने पर देव पत्नियों ने सती से पूछा कि हम दक्ष प्रजापति के यज्ञ में जा रहे हैं, और आप अभी तक तैयार नहीं हुई। सतीजी ने कहा भगवान शंकर समाधि में लीन हैं। जागने पर उनसे आज्ञा लेकर प्रस्थान करूंगी। जब शिवजी समाधि से जागे तो सतीजी ने अपने पिता के घर यज्ञ होने की बात कह कर स्वंय के जाने की अनुमति मांगी। भगवान शिवजी ने कहा कि दक्ष प्रजापति ने हमें निमन्त्रण भी नहीं भेजा तो हम क्यों जाएँ? इस पर सतीजी ने जिद्द करते हुए कहा कि पुत्री को पिता के घर से निमन्त्रण नहीं भी मिले तो भी वह निर्बाध रूप से पिता के घर कभी भी जा सकती हैं, ऐसा शास्त्रों का मत हैं। भगवान शिवजी ने काफी मना किया लेकिन सतीजी के ज्यादा जिद करने पर अपने दो चारण गणों को साथ सतीजी को रवाना कर दिया तथा चारण गणों को आदेश दिया कि सती का निरादर हो तो यज्ञ को विध्वंस कर देना। जब भगवती सतीजी दक्ष प्रजापति के यज्ञ में हरिद्वार पहुंची तो उनकी माता ने भी अपनी बेटी से बात न करते हुए द्वार बंद कर दिये। दक्ष प्रजापति का आदेश था कि किसी ने भी भगवान शिव या सती को अन्दर आने दिया तो परिणाम भंयकर होंगे। इस पर सती की माँ की अपनी पुत्री के प्रति स्वाभाविक ममता भी जबाब दे गई। इस तरह के अपमानजनक व्यवहार से दुःखी होकर सतीजी यज्ञ कुण्ड़ की अग्नि में कुदकर अपना दाह कर देती हैं। हरिद्वार में कनखल स्थान पर दक्ष प्रजापति के मंदिर के पास ही उत्तर की तरफ वह स्थान सती कुण्ड़ के नाम से आज भी प्रसिद्ध हैं। सती के अग्नि कुण्ड़ में कुदकर दाह करने से चारण गणों ने यज्ञ का विध्वंस कर दिया और दक्ष प्रजापति का सिर काट दिया जो वेदी में गिरकर भस्म हो गया। दक्ष वीर था, उसका सिर काटने से वह भद्र हो गया और चारण गण वीर भद्र कहलाया।

      भगवान शिवजी तो अन्तर्यामी थे, तुरन्त यज्ञ स्थल पर पहुंच गये और चारण गण पर कुपित होकर बोले ” मैने तुझे सती की रक्षार्थ भेजा था परन्तु तुमने लापरवाही की, सजा स्वरूप तुम मृत्यु लोक चले जाओ। तुम स्वर्गलोक के लायक नहीं हो।” यह सुनकर चारण के विलाप करने पर भी शिवजी ने एक नहीं सुनी। इस पर चारण सती के पैर पकड़कर विलाप करने लगा। यह देखकर सती के शरीर से आवाज निकली” भगवान शिवजी का श्राप तो तुम्हें भोगना ही पड़ेगा, परन्तु मेरे कारण तुम्हारी यह स्थिति हुई हैं, अतः जब भी संसार में मैं अवतार लूंगी तो चारण के घर में ही अवतार लूंगी।” सतीजी के इस वरदान के परिणामस्वरूप चारण जाति में सतीजी के चौरासी अवतार हुए और चारण देवी पुत्र कहलाए। शिवजी मनुष्यों की भांति मोह में अंधे होकर सतीजी के शव को अपने कंधे पर लेकर ताण्डव नृत्य विकरालरूप से करने लगे जैसे प्रलय कर देंगे। यह देखकर भगवान विष्णु ने सतीजी के शव को सुदर्शन चक्र से काटकर अलग-अलग जगह पर गिरा दिया। सतीजी के अंग जहां-जहां पर गिरे वह स्थान शक्ति पीठ बन गये। हिन्दू धर्म व शक्ति संप्रदाय में देवी के प्रमुख चार शक्ति पीठ हैं। पूर्व में कामाक्षी, उत्तर में ज्वालामुखी, दक्षिण में मीनाक्षी और पश्चिम में हिंगलाज। हिंगलाज में सती का ब्रह्मरूप (सिर) गिरा। यह स्थान 51 शक्ति पीठों में प्रथम और प्रधान माना जाता हैं।  

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