देवी हिंगलाज शक्तिपीठ सम्बन्धी चारण जाति की मान्यताएँ :-

देवी हिंगलाज शक्तिपीठ सम्बन्धी चारण जाति की मान्यताएँ :-

या देवी सर्वभूतेषु शक्ति रूपेण संस्थिता ।

नमोस्तस्यै नमोस्तस्यै नमोस्तस्यै नमो नमः ।।

          जिस तरह भगवान पुरूषरूप में धर्म-अधर्म का यथार्थ बोध कराने हेतु समय समय पर माता के गर्भ से उत्पन्न होते रहे है। उसी प्रकार शक्ति भी युगो-युगो से विभिन्न रूप धारण करती रही हैं।

         शिव महापुराण, श्रीरामचरित मानस के बालखण्ड़ व श्रीदेवी भागवत आदि धर्म ग्रंथों, पुस्तक विश्व विख्यात मातेश्वरी श्रीतनोटराय, जैसलमेर व पाकिस्तान की लोक मान्यताओं (ऊमरकोट के राणा हम्मीर) के अनुसार एक मान्यता है कि ब्रह्माजी के पुत्र दक्ष प्रजापति की पुत्री सती का विवाह भगवान शंकर के साथ हुआ था। एक बार ब्रह्मा, विष्णु और महेश एक ही स्थान पर विराजमान थे। दक्ष प्रजापति के आगमन पर ब्रह्माजी एवं विष्णु भगवान ने उठकर दक्ष प्रजापति का अभिनंदन किया परन्तु भगवान शंकर अपने स्थान पर यथावत बैठे रहे। दामाद के इस तिरस्कृत व्यवहार से कुपित होकर दक्ष प्रजापति ने भगवान शंकर को नीचा दिखाने की धारणा पक्की कर ली। इस हेतु दक्ष प्रजापति ने हरिद्वार में एक अभूतपूर्व यज्ञ का आयोजन किया। सारे देवी देवताओं को यज्ञ में आने का निमंत्रण भेजा लेकिन भगवान शिवजी को उसने कोई निमंत्रण नहीं भेजा। कैलाश पर्वत पर विमान द्वारा उतरने पर देव पत्नियों ने सती से पूछा कि हम दक्ष प्रजापति के यज्ञ में जा रहे हैं, और आप अभी तक तैयार नहीं हुई। सतीजी ने कहा भगवान शंकर समाधि में लीन हैं। जागने पर उनसे आज्ञा लेकर प्रस्थान करूंगी। जब शिवजी समाधि से जागे तो सतीजी ने अपने पिता के घर यज्ञ होने की बात कह कर स्वयं के जाने की अनुमति मांगी। भगवान शिवजी ने कहा कि दक्ष प्रजापति ने हमें निमन्त्रण भी नहीं भेजा तो हम क्यों जाएँ? इस पर सतीजी ने जिद्द करते हुए कहा कि पुत्री को पिता के घर से निमन्त्रण नहीं भी मिले तो भी वह निर्बाध रूप से पिता के घर कभी भी जा सकती हैं, ऐसा शास्त्रों का मत हैं। तब शिवजी ने कहा कि तुम्हारें पिताजी दक्ष मेरे विशेष विद्रोही हो गये हैं। अत: तुमको व मुझको तो विशेष रूप से दक्ष के यज्ञ में नहीं जाना चाहिये। इस पर सतीजी ने कहा कि मैं वह सब जानना चाहती हूँ कि उस दुरात्मा (दक्ष) का क्या अभिप्राय हैं ? अत : आप मुझे वहां जाने की आज्ञा दे दो। भगवान शिवजी ने काफी मना किया लेकिन सतीजी के ज्यादा जिद करने पर अपने दो चारण गणों के साथ सतीजी को रवाना कर दिया तथा चारण गणों को आदेश दिया कि सती का निरादर हो तो यज्ञ को विध्वंस कर देना। जब भगवती सतीजी दक्ष प्रजापति के यज्ञ में हरिद्वार पहुंची तो चारों द्वार भगवान शिवजी व सतीजी के लिए बंद थे। दक्ष प्रजापति का आदेश था कि किसी ने भी भगवान शिव या सती को अन्दर आने दिया तो परिणाम भंयकर होंगे। इस पर सती की माँ की अपनी पुत्री के प्रति स्वाभाविक ममता भी जबाब दे गई। यह यज्ञ भगवान शिवजी को अपमानित करने के उद्देश्य से ही दक्ष प्रजापति ने आयोजित किया गया था। जब सतीजी किसी तरह द्वार में प्रवेश करके अपनी माता के पास पहुंची तो उसकी माता असिक्री (वीरिणी) ने और बहिनों ने उनका यथोचित आदर सत्कार किया परन्तु दक्ष ने उन्हें देखकर भी कुछ आदर नहीं किया। उस यज्ञ में सतीजी ने विष्णु आदि देवताओं के भाग देखे, परन्तु शिवजी का भाग उन्हें कहीं नहीं दिखाई दिया। इस तरह के अपमानजनक व्यवहार से दुःखी होकर सतीजी यज्ञ कुण्ड़ की अग्नि में कुदकर अपना दाह कर देती हैं। हरिद्वार में कनखल स्थान पर दक्ष प्रजापति के मंदिर के पास ही उत्तर की तरफ वह स्थान सती कुण्ड़ के नाम से आज भी प्रसिद्ध हैं। सती के अग्नि कुण्ड़ में कुदकर दाह करने से चारण गणों ने यज्ञ का विध्वंस कर दिया और दक्ष प्रजापति का सिर काट दिया जो वेदी में गिरकर भस्म हो गया। दक्ष वीर था, उसका सिर काटने से वह भद्र हो गया और चारण गण वीर भद्र कहलाया।

           चारणगण सतीजी को प्राण त्यागते देखकर शोक से ऐसे व्याकूल हो गये कि वे अत्यन्त तीखे प्राणनाशक शस्त्रों से अपने ही मस्तक और मुख आदि अंगों पर आद्यात करने लगे और चारणगण सतीजी के पैर पकड़कर जोर जोर से विलाप करने लगे। भगवान शिवजी तो अन्तर्यामी थे, तुरन्त यज्ञ स्थल पर पहुंच गये और चारण गण पर कुपित होकर बोले “मैने तुझे सती की रक्षार्थ भेजा था परन्तु तुमने लापरवाही की, सजा स्वरूप तुम मृत्यु लोक चले जाओ। तुम स्वर्गलोक के लायक नहीं हो।” यह सुनकर चारण के विलाप करने पर भी शिवजी ने एक नहीं सुनी। इस पर चारण सती के पैर पकड़कर विलाप करने लगा। यह देखकर सती के शरीर से आवाज निकली “भगवान शिवजी का श्राप तो तुम्हें भोगना ही पड़ेगा, परन्तु मेरे कारण तुम्हारी यह स्थिति हुई हैं, अत: जब भी संसार में मैं अवतार लूंगी तो चारण के घर में ही अवतार लूंगी।” सतीजी के इस वरदान के परिणामस्वरूप चारण जाति में सतीजी के चौरासी अवतार हुए और चारण देवी पुत्र कहलाए। इस प्रकार से चारणों का शिव-शक्ति के साथ अटूट् सम्बन्ध वर्तमान काल तक जारी हैं। शिवजी मनुष्यों की भांति मोह में अंधे होकर सतीजी के शव को अपने कंधे पर लेकर ताण्डव नृत्य विकरालरूप से करने लगे जैसे प्रलय कर देंगे। यह देखकर भगवान विष्णु ने सतीजी के शव को सुदर्शन चक्र से काटकर अलग-अलग जगह पर गिरा दिया। सतीजी के अंग जहां-जहां पर गिरे वह स्थान शक्ति पीठ बन गये। इस अविभक्त भारत में 51 शक्तिपीठ माने जाते हैं। हिन्दू धर्म व शक्ति संप्रदाय में देवी के प्रमुख चार शक्ति पीठ हैं। पूर्व में कामाक्षी, उत्तर में ज्वालामुखी, दक्षिण में मीनाक्षी और पश्चिम में हिंगलाज। ये चारों शक्ति सम्प्रदाय में सिद्ध पीठ माने जाते हैं। इस तरह की मान्यता का समर्थन चूड़ामणि एवं मेरूतंत्र आदि ग्रंथ भी करते हैं। हिंगलाज को आद्य शक्ति एवं महाशक्ति माना जाता हैं। शाक्त मतावलम्बियों, नाथ सम्प्रदाय, चारण, राजपूत, पुरोहित, जणवा एवं खत्री जाति में हिंगलाज शक्तिपीठ की विशेष मान्यता हैं क्योंकि यहां हिंगलाज में सती का ब्रह्मरूप (सिर) गिरा था। अत: यह स्थान 51 शक्ति पीठों में प्रथम और प्रधान माना जाता हैं। डॉ. रांगेय राघव ने अपने शोध प्रबन्ध गोरख नाथ और उनका युग में लिखा हैं कि हिंगलाज में हिंगलाज देवी को जिसे मुसलमान बीबी नानी और हिन्दू पार्वती आदि कहते हैं।

        सिन्धु नदी के मुहाने से करीब 122 किमी पश्चिम तथा अरब सागर से 18 किमी उत्तर में जहां मकरान तथा लूस अलग-अलग होते हैं। वहां पहाड़ी की अंधेरी गुफा में हिंगलाज का स्थान हैं। हिंगलाज माता का यह प्रमुख स्थान शरण हिंगलाज ही माना जाता हैं। इस क्षेत्र में हिंगलाज के बावन स्थान हैं। हिंगलाज की प्राचीन यात्रा  बड़ी दुर्गम एवं साहसिक मानी जाती थी। हिंगलाज दान कविया कृत ‘दुर्गा बहत्तरी’, कालिका नंद अवधूत कृत ‘मरू तीर्थ’, कानदान बारहठ कृर्त’ हिंगलाज माता तीर्थ यात्रा के संस्मरण’, देवदत्त शास्त्री कृत’ आग्नेय तीर्थ हिंगलाज’, ओंकारसिंह लखावत कृत ‘हिंगलाज शक्तिपीठ’, ठा. नाहरसिंह जसोल कृत ‘आदि शक्ति हिंगलाज की ऐतिहासिक यात्रा’ आदि ग्रंथों में शक्तिपीठ हिंगलाज तीर्थ की यात्रा का रोचक वर्णन किया हैं।

        ओंकारसिंहजी लखावत ने लिखा हैं कि पहले हिंगलाज तीर्थ यात्री को हाव नदी से हिंगलाज माता की गुफा तक पहुंचने में 25 दिन लगते थे और वापस लौटने में 20 दिन लगते थे तीर्थ यात्रियों को 20-25 यात्रियों के समूह में छड़ीदार यात्रा कराने ले जाता था। उक्त यात्रियों की संख्या पूरी होने में कई दिन लग जाते थे नागनाथ के अखाड़े में यात्री दल अन्य यात्रियों की प्रतीक्षा करते थे। सामान ऊँटों पर लादकर ले जाया जाता था। श्री देवदत्त शास्त्री ने आग्नेय तीर्थ हिंगलाज में अपनी यात्रा का विस्तृत विवरण प्रस्तुत करते हुये लिखा हैं। कराची के बाद से खेत, बंजर भूमि, रेतीली भूर-भूरी जमीन, झांड़ियाँ, झाड़, काँटे, कंकर वाला रास्ता था। श्री शास्त्री के अनुसार, ‘हिमालय में मैंने हिम नदियों को पार किया, हिम तूफानों को झेला किन्तु माता हिंगलाज के इस आग की दरिया ने मुझे विषम बना डाला। रेगिस्तान मार्ग में रोटी बनाने के लिये जलाने की लकड़ियां भी ढूंढ़ना मुश्किल था रास्ते में ऊँट वाले को और कुंए की रखवाली करने वाले को भी रोटी देनी होती थीं। लासबेला राज्य की राजधानी सोनमियाणी में यात्रियों को अपना नाम अंकित कराना होता था और कर चुकाना होता था। रास्ते में चोर और डाकूओं के दल एवं हिंसक जानवरों से भी खतरा बना रहता था। भीषण गर्मा के कारण प्याज खाकर ही यात्रा संभव थी सनसनाती आंधियाँ यात्रा को रोक देती थी। अनेक यात्रियों की आँधियों की मिट्टी में दबकर प्राण पखेरू उड़ जाते थे। श्री देवदत्त शास्त्री के दो सह हिंगलाज यात्री आंधी की मिट्टी के नीचे दबकर रास्ते में ही अपने प्राण गंवा बैठे। कुएँ का रखवाला भी भूख से सूखकर मर जाता था। दूर-दूर निर्जन रेगिस्तान था। आठ-दस वर्ष में पानी बरस जाये तो खुश किस्मती थी। यात्रा वे ही कर पाते थे जो मृत्यु का भय त्यागकर हिंगलाज माई के दर्शन के लिये साहस और धीरज बटोर सकते थे। रास्ते में लालटेन और मोमबत्ती से प्रकाश किया जाता था। रात में सप्तर्षि और ध्रुव तारा मार्गदर्शक होता था। पीली-काली आँधियां रेगिस्तानी रास्ते के चिन्ह समाप्त कर देती थी और केवल प्रशिक्षित अनुभवी ऊँटों और उनके सवारों की सहायता से ही यात्रा संभव होती थी अन्यथा रास्ता भटकना सामान्य बात थी। सम्पूर्ण मार्ग में आंधी के कारण बालू-मिट्टी ही अभिषेक करती थी। पानी का अभाव कंठ सूखा देती थी। बाद में ऊँटों की सवारी से ही दुर्गम रास्ता पार होने लगा। बदलते समय में चार पहियों वाले वाहन भी कम से कम ऊबड़-खाबड़, पहाड़ी पथरीले रास्ते, तूफानी मरूस्थली रास्तों एवं घाटियों के बीच से हिंगलाज माता के यहाँ पहुँचाने लगे। इन्हें कराची से 20-22 घंटे लगते थे।

       कुल मिलाकर तलवार की धार पर चलने के समान हिंगलाज यात्रा बड़ी कठिन व दुर्गम थी। इतिहास के पन्नों से मुझे आदि शक्ति हिंगलाज की यात्रा करने वालों में प्रथमतया मामड़ियाजी गढ़वी, श्रीआवड़ादि देवियां, इनके पश्चात् बापलजी देथा, भलाजी सिंढ़ायच, मेहाजी किनियां, देवल मां सिंढ़ायच, मेहाजी आढ़ा, आई श्री चांपल देवी, ईसरदासजी बारहठ आदि रहे। जिन्होंने हिंगलाज माता की दुर्गम यात्रा करके माँ हिंगलाज के दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त किया था। मेरे पितृ पक्ष में मेरे पड़ दादोसा श्रीसांवलदान जी आढ़ा झांकर को 1938 ई. में व मातृ पक्ष में मेरे नानोसा श्रीकानदानजी बारहठ (गांव खारी खुर्द हाल जोधपुर) को राजेन्द्रजी कविया की हिंगलाज यात्रा से प्रेरित होकर पहली बार 1 फरवरी 2006 ई. को भारत सरकार के विदेश मंत्री जसवन्त सिंहजी जसोल के साथ व 7 फरवरी 2007 ई. को पुन: दूसरी बार आठ यात्रियों के साथ हिंगलाज माता के दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ हैं। 

        मातृ शक्ति की भक्ति व पूजा की परम्परा भारतवर्ष में सदियों पूरानी हैं। भू-मण्डल पर अनेक देशों में हजारों वर्षों से सर्वत्र शक्ति पूजा की परम्परा चली आ रही हैं। कराची के प्रसिद्ध एवं अंग्रेजी दैनिक अकबार डॉन के दिनांक 24-02-1984 ई. के अंक में श्री ए.ए. ब्रोही नाम के एक मुस्लिम पत्रकार ने लिखा हैं कि हिंगलाज देवी का स्थान हाल के पाकिस्तान के बलुचिस्तान के लासबेला नामक भूतपूर्व राज्य में स्थित हैं। यह प्रदेश मुसलमानों के द्वारा ही बसाया गया हैं। ये मुसलमान देवी हिंगलाज को ‘नानी बीबी’ अर्थात् बड़ी दादी (लेड़ी ग्रान्ड मदर) के नाम से पूजते हैं। इस्लाम धर्म के उद्भव से पहले सीरिया, ईरान, आरमेनिया, एशिया के अन्य देश इसी तरह अफ्रीका मे म्रिस यूरोप में ग्रीस एवं रोम में मातृ पूजा प्रचलित होने के ऐतिहासिक प्रमाण मिले हैं। इन प्रदेशों में (NANEA THE MOTHER GODDESS) नानिया अथवा देवी माता के नाम से जिनकी पूजा होती थी। वह नानियां देवी-नानी बीबी-महान् माता-बड़ी दादी माँ ही हैं।

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