भगवान रामचन्द्रजी से संबंधित रामायणकालीन मान्यताएँ :-

      आदि काव्य रामायण में चारणों का अनेकों बार उल्लेख हुआ हैं। जब रामचन्द्रजी का अवतार हुआ, तब ब्रहमाजी ने देवता, ऋषि, सिद्ध और चारण आदि को आज्ञा दी, कि जगत् के कल्याण के लिये विष्णु ने राजा दशरथ के यहां अवतार लिया हैं। तुम सभी वानरों की योनि में उत्पन्न होकर उनकी सहायता करो। इस प्रकार ब्रह्माजी की आज्ञा से देवता, ऋषि, सिद्ध और चारणों ने वानर योनि में अपने अंश से पुत्र पैदा किये, जिसका प्रमाण वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड सर्ग, 17 श्लोक 9 में इस प्रकार से मिलता हैं।

श्लोक

ऋषयश्र्व महात्मानः सिद्धविद्याधरोरगाः।

चारणाश्र्व सुतान् वीरान् ससृजुर्वनचारिणः।।

    गौतम ऋषि की पत्नी अहल्या से इन्द्र ने मुनि का वेश धारण करके दुराचार किया जिसका पता गौतम को चला तो उसने इन्द्र को अफल अर्थात् पुरूषार्थ रहित होने का और अहल्या को पाषाण होने का शाप दिया और वे अपने उस आश्रम को छोड़कर हिमालय के सुन्दर शिखर की ओर तप करने के लिए चले गये जहां पर सिद्ध चारण रहते थे। इसका उल्लेख वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड़ सर्ग, 48, श्लोक 33 में हुआ हैं।

श्लोक

एवमुक्त्वा महातेजागौतमोदुष्टचारिणीम् ।

इममाश्रममुत्सृज्य सिद्धचारणसेविते ।।

हिमवच्छिखरे रम्ये तपस्तेपे महातपाः।।।

     रामचन्द्रजी ने जब शिवजी के धनुष को तोड़ा था तो शिव और विष्णु के मध्य मे युद्ध हुआ, तो विष्णु की हुंकार मात्र से तीन नेत्रों वाले शिव को स्तंभित कर दिया था, उस समय देवता, ऋषि समूह और चारणों ने उनको समझाया, इसका उल्लेख वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड, सर्ग 75, श्लोक 18 में हुआ हैं।

श्लोक

हुंकारेण महादेवस्तम्भितोथ त्रिलोचनः।

देंवैस्तदा समागम्य सर्षिसंधैः सचारणैः ।।

      जब लंका का राजा रावण सीता का हरण करके लंका जा रहा था, तब सीता के हरण से समुद्र स्तम्भित हो जाता हैं, तब चारण व सिद्ध कहने लगे कि अब रावण का विनाश आ गया हैं। इसका उल्लेख वाल्मीकि रामायण के अरण्यकाण्ड, सर्ग 54, श्लोक 10-11 में इस प्रकार से हुआ हैं।

श्लोक

वेंदेह्यां ड्रियमाणायां वभूव वरूणालयः।

अन्तरिक्षगतावाचः ससृजुश्रवारणास्तथा ।

एतदन्तो दशग्रीव इति सिद्धास्तदाब्रुवन् ।।।

     लंका को जला देने के बाद हनुमान के चिंत्त में इस बात का बड़ा पश्चाताप हुआ कि इस आग से यदि सीता का दाह हो गया तो उसके शोक से राम व लक्ष्मण आदि सब प्राण त्याग देंगे और उनके शोक में सुग्रीव और अंगद आदि भी अपने प्राण त्याग देंगे तो इस दोष का मुख्य कर्त्ता मैं ही हुआ इसलिए पहले मुझे ही अपना शरीर त्याग देना चाहिए। इस तरह के विचार करते हनुमान को देखने पर चारण महात्माओं ने कहा कि लंका तो जल गई, परन्तु सीता का दाह नहीं हुआ। इसका उल्लेख वाल्मीकि रामायण के सुन्दर काण्ड़, सर्ग 55, श्लोक 29 में हुआ हैं।

श्लोक

सतथा चिन्तयंस्तत्र देव्याधर्मपरिग्रहम् ।

शुश्राव हनुमांस्तत्र चारणानां महात्मनाम् ।।

लंका दहन के बाद हनुमान जब वापस आये तो अंगद आदि वानरों ने पूछा कि तुम किस प्रकार लंका में गये? उस समय हनुमान ने अपना सब वृत्तान्त उन्हें सुनाया, उसमें यह बात भी कही कि मैंने लंका को जलाने के बाद समुद्र के किनारे आकर सोचा, कि सब लंका जलाई गई, तो सीता माता भी उसमें अवश्य जल गई होगी, इसके प्रायश्चित में मैंने भी अपने शरीर को त्यागने का निर्णय किया। उस समय चारणों से हनुमान ने सुना कि जानकी नहीं जली हैं। इसका उल्लेख वाल्मीकि रामायण के सुन्दरकाण्ड़, सर्ग 58, श्लोक 61-62 में हुआ हैं।

श्लोक

इति शोकसमाविष्ट श्र्विन्तामहमुपागतः।

ततोहं वाचमश्रौषं चारणानां शुभाक्षराम्।।

जानकीन च दग्धेति विस्मयोदन्तभाषिणाम्।

ततो मे बुद्धिरूत्पन्ना श्रुत्वा तामद्रुतां गिरम् ।।

        जब राजा रावण वरदान लेकर चन्द्रलोक को विजय करने के लिये तीसरे उत्तम वायु के मार्ग से गया, तब मार्ग में चारणों का लोक भी आया जहां सिद्ध और मनस्वी यानी शुद्ध मनवाले चारण सदैव निवास करते थे जिसका उल्लेख वाल्मीकि रामायण के उत्तरकाण्ड़, सर्ग 4, श्लोक 4 में हुआ हैं।

श्लोक

अथ गत्वा तृतीयन्तु वायोः पंथानमुत्तमम् ।

नित्यं यत्र स्थिताः सिद्धा श्रवारणाश्र्व मनस्विनः।।

    वशिष्ट ऋषि ने राजा जनक को सृष्टि का क्रम बताया था, जिसमें 24 तत्व सब आकृतियों में कहे हैं जिसका उल्लेख शान्ति पर्व मोक्ष पर्व का अध्याय 303, श्लोक 29-30 में हुआ हैं।

    हे उत्तम नर, उक्त देह समाख्यान को, देवता, मनुष्य, दानव, यक्ष, भूत, गन्धर्व, किन्नर, महोरग, चारण, पिशाच तथा देवर्षि और राक्षसों के साथ त्रैलोक्य के सब प्राणियों में जानना चाहिये।

श्लोक

एत्तदेहं समाख्यानन्त्रैलोक्ये सर्वदेहिषु ।

वेदितव्यं नरश्रेष्ठ सदेवनरदानवे ।।

सयक्षभूतगन्धर्वे सकिन्नरमहोरगे ।

सचारणपिशाचे वै सदेवर्षिनिशाचरे ।।

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